सनातन की विशिष्टता

सनातन धर्म की विशिष्टता
शब्दकोश के अनुसार सनातन का अर्थ सदा बना रहने वाला, नित्य, शाश्वत, चिरंतन है। सनातन धर्म की मीमांसा इसी अर्थ के आलोक में की जानी चाहिए। सनातन के उदगम के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। इस बात में ज्यादातर लोग एकमत हैं कि सनातन या हिंदू धर्म और यहूदी धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में शामिल हैं हालांकि सनातन नाम की सार्थकता सदैव नवीन और प्रासंगिक बने रहने में हैं। सनातन धर्म की आलोचना करने वाले अकसर यह तर्क देते हैं कि यह धर्म वस्तुतः उतना पुराना नहीं है जितना दावा किया जाता है अर्थात वैदिक धर्म में वर्णित धार्मिक परंपराओं और आधुनिक परंपराओं में अत्यधिक अंतर है। यह आक्षेप लगाने वाले लोग अकसर यह भूल जाते हैं कि गंगोत्री और हरिद्वार या प्रयागराज में गंगा का प्रवाह एक समान नहीं होता। समय और स्थान के साथ जैसे नदी अपना स्वरूप बदलती है, वैसे ही विचार और परंपराएं भी स्वरूप बदलते हैं।
सनातन धर्म की निरंतरता और प्रासंगिकता इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि सनातन धर्म के आदि ग्रंथों वेदों का रचना काल 20000 वर्ष तक पुराना माना जाता है, हालांकि यह रचनाकाल इससे भी पुराना हो सकता है क्योंकि वेद श्रुति परंपरा से संग्रहीत किए गए थे, वहीं हिंदू धर्म का सबसे लोकप्रिय और जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला ग्रंथ रामचरितमानस सोलहवीं शताब्दी में लिखा गया है। रामायण को अवधी भाषा में रूपांतरित करने वाले इस ग्रंथ की तरह भारत की अन्य भाषाओं में भी रामायण का रूपांतरण हुआ है। रामायण के इन भाषायी रूपांतरणों ने इस प्राचीन ग्रंथ को सर्वसुलभ बनाने के साथ-साथ आधुनिक युग के अनुकूल भी बनाया है। इसी के साथ-साथ ईश्वर-जगत संबंध के बारे में भी अलग-अलग विचारक अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे हैं। सनातन धर्म का मूल विश्वास यह है कि ईश्वर और जगत या प्राणी का संबंध व्यक्तिगत है। ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग मार्गों के साथ-साथ ईश्वर की व्याख्या भी अलग-अलग तरीके से की गई है। रामचरितमानस की चौपाई “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” के अनुरूप सनातन धर्म का मानना है कि ईश्वर के साक्षात्कार की अनुभूति व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार विशिष्ट होती है। इसलिए जिस ‘अनहलक’ की अभिव्यक्ति के लिए इस्लाम ने मंसूर अल हल्लाज को निर्मम प्राणदंड दिया, करीब-करीब उसी के समरूप ‘अहम् ब्रहास्मि’ के लिए आदि शंकराचार्य सनातन धर्म के युग प्रवर्त्तक महापुरुषों में शामिल हैं।
आलोचना के प्रति सम्मान भी सनातन धर्म का मूल तत्व है। जैन और बौद्ध मत वैदिक काल की कुरीतियों और कालबाह्य रूढ़िवादिताओं के विरुद्ध बेहद सशक्त चुनौती थे परंतु सनातन धर्म ग्रंथों में कहीं भी इन मतों के विरुद्ध बल प्रयोग के समर्थन का उल्लेख नहीं मिलता। आजकल के तथाकथित इतिहासकार इन मतों के भारत में लोकप्रिय नहीं होने के लिए भले ही सनातन को उत्तरदायी ठहराते हैं परंतु ऐसा कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि इन मतों को सनातन धर्मालंबियों की तरफ से हिंसा या दमन का सामना करना पड़ा हो। इसी तरह भक्तिकाल में कबीर, रैदास और नानक ने सनातन धर्म की प्रचलित धारणाओं पर प्रश्न चिह्न लगाया परंतु इसके बावजूद इन सभी महापुरुषों को सनातन धर्मावलंबियों ने आदरणीय माना है। आधुनिक काल में स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में सनातन धर्म की मान्यताओं और धारणाओं की जितनी कटु आलोचना की गई है, ऐसी आलोचना शायद ही किसी अन्य ग्रंथ में हो, परंतु इसके बावजूद इस ग्रंथ का सम्मान धर्मग्रंथों के समान ही किया जाता है।
इन सब चीजों के होते हुए भी अन्य मतों के मुकाबले सनातन की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टता क्या है। अन्य प्रचलित धर्म दृष्टियां वस्तुतः अपना उपसंहार लिख चुकी हैं। ईसाई और इस्लाम जैसे धर्म अपने धर्मग्रंथों, धार्मिक पुरुषों और अपने ईश्वर के संदेश के बारे में तथाकथित अंतिमता के नाम पर ईश्वर पर भी यह प्रतिबंध लगा चुके हैं कि अब सर्वशक्तिमान ईश्वर भी न तो स्वयं अवतरित हो सकते हैं और न ही अपने किसी संदेशवाहक को भेज सकते हैं परंतु सनातन धर्म में यह आज भी संभावना है कि कोई भी व्यक्ति ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है और ईश्वर की वाणी का उद्घोषक बन सकता है। ईश्वर को पाने की यह सर्वसुलभ और सर्वकालिक संभावना ही सनातन है।

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आदि दूत

सनातन ही अनन्त है, सनातन ही अनादि है। सनातन से पहले कुछ नहीं था, सनातन के बाद कुछ नहीं रहेगा। आप लोग सोचेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि इसके पीछे कुछ कारण हैं। सनातन सृष्टि के सृजन की मूल है।सनातन कोई धर्म नहीं है

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