संगत का असर
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं , लिपटे रहत भुजंग ॥ आइए सर्वप्रथम इस दोहे के मूल भाव को समझ लें
Spirit Of Giving
शंकराचार्य के सिद्धांतों को सरल भाषा में जन जन तक पहुँचाया जायेगा
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं , लिपटे रहत भुजंग ॥ आइए सर्वप्रथम इस दोहे के मूल भाव को समझ लें
सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते पैसा सब कुछ तो
हे राम तुम उपमान हो हे राम तुम उपमेय होअज्ञान का हो ज्ञान तुम हो ध्यान तुम ही ध्येय हो मेरी चराचर देह में हो
*”ईश्वर क्या है”* यदि एक नास्तिक से पूछोगे तो वह कहेगा ईश्वर कहीं नहीं है, लेकिन अगर एक आस्तिक से पूछोगे तो वह कहेगा कि ईश्वर है, वैसे मुझे इतना ज्ञान नहीं है कि मैं दोनों का आँकलन कर सकूँ लेकिन मेरे निज ज्ञान के अनुसार दोनों के पास ही अधूरा ज्ञान है। सच तो यह है कि ईश्वर है या नहीं है यह सवाल ही ग़लत है ,अब यदि आप किसी आँखें बंद करके लेटे हुए व्यक्ति से पूछेंगे कि क्या तुमसो रहे हो, यदि वह जवाब देता है कि नहीं तो आप समझ जायेगे कि वह जाग रहा है, और यदि वह जवाब दे कि हाँ तब भी वह जाग हीरहा है,इसी तरह यदि कोई कहे कि ईश्वर है तब तो इसका मतलब यही है कि ईश्वर है और यदि कोई कहे कि ईश्वर नहीं है तब भीइसका मतलब यही है कि ईश्वर है। क्योंकि “नहीं” और “हाँ” कहने के लिये शरीर में ईश्वर का होना ज़रूरी है।आपके अंदर जो हाँ और नहीं बोल रहा है वही ईश्वर है वरनामृत प्रायः शरीर है। ईश्वर तो है और यही सत्य है लेकिन तुम्हें यह पता करना है कि तुम हो या नहीं हो।आप जो अपने आपको आस्तिक और नास्तिकमानकर बैठे हो तो क्या आप अलग अलग हो। ईश्वर को शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। वह केवल मानव इंद्रियों बुद्धि सोम और मैं की अवधारणा और शरीर की पहुंच सेबहुत परे है। क्योंकि वह स्वयं सब कुछ है। ईश्वर ने मानव को धारण किया हुआ है ना कि मानव ने ईश्वर को धारण किया है , ईश्वर वायु है ईश्वर अग्नि है ईश्वर जल है ईश्वर नभहै ईश्वर धरा है यदि वायु की आपूर्ति बंद हो जाये तो हम तो हम सांस भी नहीं ले सकते। हमारे अंदर ईश्वर है हम चल रहे हैं हमारे अंदर ईश्वर है हम बोल रहे हैं हम एक दूसरे से बात कर रहे हैं हम खा सकते हैं, हम खाना पचासकते हैं, ईश्वर की वजह से ही हमारी आंखें देख सकती हैं, हमारे कान सुन सकते हैं हमारी जीभ स्वाद ले सकती है हमारी त्वचासंवेदनाओं को महसूस कर सकती है। हमारे दिल की वजह से धड़कने चलती है। हमारी धमनियां शुद्ध रक्त को हृदय से ले जाती हैं औरहमारी नसें अशुद्ध रक्त को हृदय में ही ले जाती हैं, यह सब ईश्वर ही तो है जो यह सारा कार्य मनुष्य के शरीर में कर रहा है वह ईश्वरीयशक्ति ही तो है जो इस पंचतत्व से बने शरीर को चला रही है ईश्वर चैतन्य है। ईश्वर के बिना हम एक सेकेंड भी नहीं जी सकते। सूर्य, चंद्रमा और सभी ग्रह उसी ईश्वर के कारण मौजूद हैं। ईश्वर के बारे में कितना भी सोचते रहो….तुम्हें अंत नहीं मिलेगा। ईश्वर सब जगह है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं: “ईश्वरो सर्व भूतनम् हृद्वेश तिष्ठति अर्जुन“ ईश्वर हमारा अपना स्व (आत्मा), सर्वोच्च स्व है। उन्हें विभिन्न नामों और रूपों से जाना जाता है – शिव, राम, कृष्ण, अम्बे मां, काली, दुर्गा, गणेश और कई अन्य नामों से। मुसलमान उसे अल्लाह के नाम से बुलाते हैं जबकि ईसाई उसे God कहते हैं, लेकिन वह अकेला है। किसी का ईश्वर है किसी काअल्लाह है किसी का God है लेकिन है एक ही । ईश्वर सब, सर्वत्र, कारण और प्रभाव, हर एक रूप में या बिना किसी रूप के भी है। वह सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, पारलौकिक, सर्वव्यापीसर्वशक्तिमान अलौकिक शक्ति है। जैसा कि ईश्वर की परिभाषा सभी धर्मों ने सामान ही दी है तो अंतर केवल इतना है कि उस ईश्वर को मानने वाले किसी एक अनुयायीका हमने अनुसरण आरम्भ कर दिया| ईसाईयों ने प्रभु येशु का अनुसरण किया, मुसलमानों ने पैगम्बर मोहम्मद का अनुसरण आरम्भकिया, जैन धर्म ने महावीर जैन का अनुसरण आरम्भ किया, बौद्ध धर्म ने गौतम बुद्ध का अनुसरण आरम्भ किया, किन्तु सनातनियों नेप्रत्येक महानता का अनुसरण आरम्भ किया| भगवान् राम, कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, साईं, गुरुनानक देव, गुरु गोविन्द सिंह, तथागत बुद्ध, महावीर जैन, प्रभु येशु, पैगम्बर मोहम्मद आदि इन सभी का अनुसरण किया| जी हाँ सभी का| सनातनी वही है जो किसी भी धर्म स्थल पर पूरी आस्था के साथ ईश्वर की उपासना करता है| फिर चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, जैन या बौद्ध मंदिर हो सभी स्थानों पर ईश्वर तो एक ही है| क्यों कि यह तो कण कण में विराजमान है| समस्त मानव जाति ईश्वर के अस्तित्व को मानती है लेकिन किसी भी मनुष्य ने ईश्वर को नहीं देखा है? यदि किसी से पूछा भी जाये किक्या तुमने ईश्वर को देखा है तो मैं जानता हूं कि अधिकतर लोग नहीं में जवाब देंगे।इसी तरह यदि कितने भी मनुष्यों से पूछा जाये किआपमें से कितनों ने प्रकृति को देखा है? प्रकृति यानी जल, जंगल और जमीन। निस्संदेह, सबके सब हां में जवाब देंगे। जबकि यह प्रकृति ही ईश्वर का रूपक है।ईश्वर को जानने का श्रोत है। भगवान शिव की जटाओं से गंगा निकलती है, वह प्रकृति ही तोहै। देव पर्वतों पर रहते हैं और पर्वत प्रकृति का हिस्सा ही तो है। जंगल से नाना प्रकार की वनस्पतियां और अन्न–अनाज की प्राप्ति होतीहै। वह अन्नपूर्णा प्रकृति ही तो है। निर्विवादित रूप से इस मृत्युलोक और परलोक के बीच ईश्वर का साक्षात एहसास प्रकृति ही है। वहहर क्षण ईश्वर के होने का प्रमाण देती है। जब हम भयंकर गर्मी की तपिश से झुलस रहे होते हैं, तब बारिश की फुहार बनकर प्रकृति आती है। जब ठंड के प्रकोप से ग्रसित होते हैं, तब सूरज की तेज किरणें बनकर वह छा जाती है। और जब हमारे अंदर का शैतान जाग उठता है, तो वह संहारक के रूप में होती है। वहकिसी भी ‘अति’ का प्रतिरोध है और सृष्टि रचयिता के होने की गवाही है। प्रकृति जन्म का संकेत है, तो मरण का सूचक भी है , पंचतत्वोंको मिलाकर मानव शरीर बनता है तो इनको वापस प्रकृति में मिलाना ही प्रकृति की नियति है। सनातन में प्रकृति को शरीर से अलग करके नहीं देखा गया। कोई भेद नहीं रखा गया। रामायण में कहा गया है– छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।। प्रभु श्रीराम कहते हैं– पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु, इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है। धर्म क्या है
सच तो यह है कि एक परिपूर्ण और सार्थक जीवन जीने के लिए दिल और दिमाग दोनों की जरूरत होती है। उस संतुलन को कैसे खोजेंऔर जानें कि आपको अपने किस हिस्से को कब सुनना है, यह वास्तव में खुद को अच्छी तरह से जानने की प्रकिया है। आत्म-साक्षात्कार “प्रामाणिक आप” को खोजने की कुंजी है, लेकिन आत्म-साक्षात्कार अचानक नहीं होता है – आपको वास्तविकता पर ध्यान केन्द्रित करना और वास्तविकता को पहचानना है।मुझे विश्वास था कि मेरे कर्म तय करेंगे कि मैं स्वर्ग जाऊं या नर्क, जब तक मुझे लगा कि मुझे वहां पहुंचने के लिए मरना नहीं है। मेरेदिमाग में दोनों जगह पहले से मौजूद हैं। और मैं अपने विचारों से ही अपना स्वर्ग या नरक बना लेता हूं…याद रखें कि केवल आप ही अपनी कीमत तय करने के प्रभारी हैं। केवल आप ही तय कर सकते हैं कि आप कितना प्यार करते हैं, आपकितने सम्मानित हैं और आप कितने प्रतिष्ठित हैं। दूसरों को अपनी आवाज बनने देना बंद करें। यदि आप अभी तक योग्य या सबकेप्रिय महसूस नहीं करते हैं, तो जान लें कि आप इसको अपने आंतरिक कार्य द्वारा ही बदलने में संभव है। आपकी आवाज सुंदर है, आपमायने रखते हैं, आप एक दिव्य प्राणी हैं – जाओ अपने असली भाग्य को पहचान कर अपने कर्म से उस पर दावा करो! हमारी दो प्रकार की इच्छाएँ होती हैं – एक सच्ची इच्छाएँ अर्थात् आत्मा की इच्छाएँ, दूसरी झूठी इच्छाएँ या अहंकार की इच्छाएँ।अहंकार की इच्छाएं वे हैं जो हमारी आंतरिक कमी से प्रेरित होती हैं, जो आत्म-सम्मान की कमी की भरपाई करना चाहती हैं। दूसरी ओरसच्ची इच्छाएँ वह रचनात्मक शक्ति है जो हमें आगे बढ़ने के लिए प्रज्वलित करती है, इसे साकार करने की दिशा में कार्य करती है। यहहमारी आत्मा की नियति है – सच्ची और झूठी इच्छाओं के बीच अंतर करने के लिए हालांकि आत्म-जागरूकता की बहुत आवश्यकताहोती है और आमतौर पर यह केवल एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक या प्रशिक्षक की मदद से ही हो सकता है।आइए हम खुद को झूठे आत्मविश्वास से भरने की कोशिश करने के बजाय अपनी स्पष्टता बढ़ाने का प्रयास करें।यदि आपके पास स्पष्टता है, तो आपको किसी आत्मविश्वास की आवश्यकता नहीं होगी। आप आसानी से जीवन के माध्यम से अपनारास्ता बना कर सकते हैं। “चिंता और भय ने हमें पहले से कहीं अधिक अपंग बना दिया है”हम सभी अपने जीवन में अलग-अलग तरीके में भय और चिंता दोनों का अनुभव करते हैं, लेकिन इसके बारे में सार्वजनिक रूप से बातकरने से बचते हैं, क्योंकि यह कमजोरी और आत्मविश्वासी ना होने का पर्याय लगता है। कभी-कभी हम इन भावनाओं को पहली बार में समझ भी नहीं पाते हैं तो चलिए पहले उन्हें परिभाषित करते हैं डर: शरीर की उड़ान और तत्काल खतरे की प्रतिक्रिया है चिंता: संभावित भविष्य के खतरे या खतरे की आशंका से उत्पन्न तनावपूर्ण प्रतिक्रिया है दोनों समान तनाव प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं, फिर भी अंतर पर ध्यान देने की आवश्यकता है। मेरा उद्देश्य एक दूसरे को इन भावनाओं से अवगत कराना है, ताकि हम जान सकें कि हम वास्तव में भय या चिंता का अनुभव क्यों कर रहेहैं? अब प्रश्न यह है कि कौन सा अधिक हानिकारक है? मेरी राय में, चिंता से पहले हमें कहीं ज्यादा हमें डर ने रोक दिया है … इसने हमें रोक दिया “उस अवसर को हथियाने” से “उस समस्या को स्पष्ट करने ” से “उस मंज़िल पर बढ़ने से” “उन जीवन को बदलने वाले निर्णय लेने” से चिंता हो या भय, उन्हें वैसे ही स्वीकार करने का समय आ गया है, तभी हम उनके बीच अंतर कर सकते हैं, एक बार स्वीकार किए जानेपर, उन पर कार्रवाई की जा सकती है, जो एक सतत प्रक्रिया है आइए इन शक्तिशाली बाधाओं को दूर करने में एक-दूसरे की मदद करें जिससे हम अपनी ताकत और शक्ति को भूल जाते हैं। 58
सनातन और त्रिदेव नमस्ते भगवान रुद्र भास्करामित तेजसे। नमो भवाय देवाय रसायाम्बुमयात्मने।।हे मेरे भगवान! हे मेरे रूद्र, अनंत सूर्यो से भी तेज आपका तेज है।