ईश्वर क्या है धर्म क्या है

*”ईश्वर क्या है”*

यदि एक नास्तिक से पूछोगे तो वह कहेगा ईश्वर कहीं नहीं हैलेकिन अगर एक आस्तिक से पूछोगे तो वह कहेगा कि ईश्वर है,

वैसे मुझे इतना ज्ञान नहीं है कि मैं दोनों का आँकलन कर सकूँ लेकिन मेरे निज ज्ञान के अनुसार दोनों के पास ही अधूरा ज्ञान है।

सच तो यह है कि ईश्वर है या नहीं है यह सवाल ही ग़लत है ,अब यदि आप किसी आँखें बंद करके लेटे हुए व्यक्ति से पूछेंगे कि क्या तुमसो रहे होयदि वह जवाब देता है कि नहीं तो आप समझ जायेगे कि वह जाग रहा हैऔर यदि वह जवाब दे कि हाँ तब भी  वह जाग हीरहा है,इसी तरह यदि कोई कहे कि ईश्वर है तब तो इसका मतलब यही है कि ईश्वर है और यदि कोई कहे कि ईश्वर नहीं है तब भीइसका मतलब यही है कि ईश्वर है।

क्योंकि “नहीं” और “हाँ” कहने के लिये शरीर में ईश्वर का होना ज़रूरी है।आपके अंदर जो हाँ और नहीं बोल रहा है वही ईश्वर है वरनामृत प्रायः शरीर है।

ईश्वर तो है और यही सत्य है लेकिन तुम्हें यह पता करना है कि तुम हो या नहीं हो।आप जो अपने आपको आस्तिक और नास्तिकमानकर बैठे हो तो क्या आप अलग अलग हो।

ईश्वर को शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। वह केवल मानव इंद्रियों बुद्धि सोम और मैं की अवधारणा और शरीर की पहुंच सेबहुत परे है। क्योंकि वह स्वयं सब कुछ है।

ईश्वर ने मानव को धारण किया हुआ है ना कि मानव ने ईश्वर को धारण किया है , ईश्वर वायु है ईश्वर अग्नि है ईश्वर जल है ईश्वर नभहै ईश्वर धरा है यदि वायु की आपूर्ति बंद हो जाये तो हम तो हम सांस भी नहीं ले सकते। 

हमारे अंदर ईश्वर है हम चल रहे हैं हमारे अंदर ईश्वर है हम बोल रहे हैं हम एक दूसरे से बात कर रहे हैं हम खा सकते हैंहम खाना पचासकते हैंईश्वर की वजह से ही हमारी आंखें देख सकती हैंहमारे कान सुन सकते हैं हमारी जीभ स्वाद ले सकती है हमारी त्वचासंवेदनाओं को महसूस कर सकती है। हमारे दिल की वजह से धड़कने चलती है। हमारी धमनियां शुद्ध रक्त को हृदय से ले जाती हैं औरहमारी नसें अशुद्ध रक्त को हृदय में ही ले जाती हैंयह सब ईश्वर ही तो है जो यह सारा कार्य मनुष्य के शरीर में कर रहा है वह ईश्वरीयशक्ति ही तो है जो इस पंचतत्व से बने शरीर को चला रही है ईश्वर चैतन्य है। ईश्वर के बिना हम एक सेकेंड भी नहीं जी सकते।

सूर्यचंद्रमा और सभी ग्रह उसी ईश्वर के कारण मौजूद हैं।

ईश्वर के बारे में कितना भी सोचते रहो….तुम्हें अंत नहीं मिलेगा। ईश्वर सब जगह है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं:

ईश्वरो सर्व भूतनम् हृद्वेश तिष्ठति अर्जुन

 ईश्वर हमारा अपना स्व (आत्मा), सर्वोच्च स्व है।

उन्हें विभिन्न नामों और रूपों से जाना जाता है – शिवरामकृष्णअम्बे मांकालीदुर्गागणेश और कई अन्य नामों से।

मुसलमान उसे अल्लाह के नाम से बुलाते हैं जबकि ईसाई उसे God कहते हैंलेकिन वह अकेला है। किसी का ईश्वर है किसी काअल्लाह है किसी का God है लेकिन है एक ही 

ईश्वर सबसर्वत्रकारण और प्रभावहर एक रूप में या बिना किसी रूप के भी है। वह सर्वव्यापीसर्वव्यापकपारलौकिकसर्वव्यापीसर्वशक्तिमान अलौकिक शक्ति है। 

जैसा कि ईश्वर की परिभाषा सभी धर्मों ने सामान ही दी है तो अंतर केवल इतना है कि उस ईश्वर को मानने वाले किसी एक अनुयायीका हमने अनुसरण आरम्भ कर दियाईसाईयों ने प्रभु येशु का अनुसरण कियामुसलमानों ने पैगम्बर मोहम्मद का अनुसरण आरम्भकियाजैन धर्म ने महावीर जैन का अनुसरण आरम्भ कियाबौद्ध धर्म ने गौतम बुद्ध का अनुसरण आरम्भ कियाकिन्तु सनातनियों नेप्रत्येक महानता का अनुसरण आरम्भ कियाभगवान् रामकृष्णहनुमानब्रह्माविष्णुमहेशगणेशदुर्गालक्ष्मीसरस्वतीसाईंगुरुनानक देवगुरु गोविन्द सिंहतथागत बुद्धमहावीर जैनप्रभु येशुपैगम्बर मोहम्मद आदि इन सभी का अनुसरण कियाजी हाँ सभी कासनातनी वही है जो किसी भी धर्म स्थल पर पूरी आस्था के साथ ईश्वर की उपासना करता हैफिर चाहे वह मंदिर होमस्जिदगुरुद्वाराचर्चजैन या बौद्ध मंदिर हो सभी स्थानों पर ईश्वर तो एक ही हैक्यों कि यह तो कण कण में विराजमान है|

समस्त मानव जाति ईश्वर के अस्तित्व को मानती है लेकिन किसी भी मनुष्य ने ईश्वर को नहीं देखा हैयदि किसी से पूछा भी जाये किक्या तुमने ईश्वर को देखा है तो मैं जानता हूं कि अधिकतर लोग नहीं में जवाब देंगे।इसी तरह यदि कितने भी मनुष्यों से पूछा जाये किआपमें से कितनों ने प्रकृति को देखा हैप्रकृति यानी जलजंगल और जमीन। निस्संदेहसबके सब हां में जवाब देंगे।

जबकि यह प्रकृति ही ईश्वर का रूपक है।ईश्वर को जानने  का श्रोत है। भगवान शिव की जटाओं से गंगा निकलती हैवह प्रकृति ही तोहै। देव पर्वतों पर रहते हैं और पर्वत प्रकृति का हिस्सा ही तो है। जंगल से नाना प्रकार की वनस्पतियां और अन्नअनाज की प्राप्ति होतीहै। वह अन्नपूर्णा प्रकृति ही तो है। निर्विवादित रूप से इस मृत्युलोक और परलोक के बीच ईश्वर का साक्षात एहसास प्रकृति ही है। वहहर क्षण ईश्वर के होने का प्रमाण देती है।

जब हम भयंकर गर्मी की तपिश से झुलस रहे होते हैंतब बारिश की फुहार बनकर प्रकृति आती है। जब ठंड के प्रकोप  से ग्रसित होते हैंतब सूरज की तेज किरणें बनकर वह छा जाती है। और जब हमारे अंदर का शैतान जाग उठता हैतो वह संहारक के रूप में होती है। वहकिसी भी ‘अति’ का प्रतिरोध है और सृष्टि रचयिता के होने की गवाही है। प्रकृति जन्म का संकेत हैतो मरण का सूचक भी है , पंचतत्वोंको मिलाकर मानव शरीर बनता है तो इनको वापस प्रकृति में मिलाना ही प्रकृति की नियति है।

सनातन  में प्रकृति को शरीर से अलग करके नहीं देखा गया। कोई भेद नहीं रखा गया। रामायण में कहा गया है

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

प्रभु श्रीराम कहते हैं– पृथ्वीजलअग्निआकाश और वायुइन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।

धर्म क्या है 

संसार का हर मानव आज भौतिक सुखआर्थिक समृद्धि से परिपूर्ण जीवन की कल्पना में दौड़ लगा रहा है लेकिन जीवन शांतिपूर्ण हो यहसोच मानव ने छोड़ दी है। यदि जीवन शान्तिपूर्ण है तो भौतिक सुख एवं आर्थिक समृद्धि स्वयं चली आती है। सभी एक दूसरे का सुखछीनने में लगे हैं एक दूसरे को नीचे खींचने में लगे हैं वह चाहे धर्म के नाम पर हो या सम्प्रदाय के नाम पर हो जाति के नाम पर हो या वंशके नाम पर हो , शांति से परिपूर्ण जीवन के लिए सदाचारी और उत्तम चरित्र का होना पहली शर्त हैजो उच्च विचारों के बिना असंभव है।

यह मानव जीवन मिला है तो हमें इस दुर्लभ मानव जीवन को किसी भी मूल्य पर निरर्थक और उद्देश्यहीन नहीं बनने देना चाहिए। मानवउत्थान और जनकल्याण की भावना हमारे अंदर हमेशा जागृत रहनी चाहिएआत्मचिन्तन की कामना ही हमारे जीवन का उद्देश्य होनाचाहिए। हमें केवल अपने सुख की इच्छा ही मानव होने के अर्थ से अलग  करती है। जब तक हम मानव होने के नाते दूसरे के दु:दर्द मेंसाथ नहीं निभाएंगे तब तक हम इस मानव जीवन की सार्थकता को  सिद्ध करने में असमर्थ रहेंगे ,हमारी सोच केवल हमारे परिवार तकसीमित रह जाती है जबकि हमारा परिवार भी समाज की ही एक इकाई हैपरिवार तक ही सीमित रहने से सामाजिकता का उद्देश्य पूराकभी नहीं होता। हमारे जीवन का अर्थ तभी पूरा हो सकेगा जब हम समाज को भी अपना परिवार मानेंसमस्त मानव जाति हमारा परिवारहो हमारा समाज हो,मानवता में ही सज्जानता निवास करती हैऔर यही सदाचार का पहला लक्षण है। मनुष्य की यही एक शाश्वतपूंजी है। मनुष्य भौतिकता के वशीभूत होकर जीवन की जरूरतों को अनावश्यक रूप से बढ़ाता रहता हैजिसके लिए सभी से भलाईबुराई लेने को भी तैयार रहता हैलेकिन उसके समीप होते हुए भी वह अपनी शाश्वत पूंजी को स्वार्थवश नजरअंदाज करता रहता है।

जीवन भर के प्रयासों से हम समस्त भौतिक उपलब्धियों को अपने पास एकत्रित तो कर लेते है लेकिन हमारा अंतस जीवन के शाश्वतमूल्यों से खाली हो जाता है इसलिए हमारी सारी उपलब्धियां निरर्थक रह जाती हैं ,मानवता के प्रति समर्पित होकर नैतिक मूल्यों की रक्षाके लिए ईमानदारी से प्रतिबद्ध होकर मानव जीवन की सार्थकता को सिद्ध करना ही मानवता का उद्देश्य होगा तभी जीवन की सार्थकताइसमें निहित हो जायेगी ।जीवन की वास्तविक सुखशांति इसी में है। यदि आप जीवन में नैतिकता की उपेक्षा करेगे तो आपकाआत्मबल अवश्य कमजोर होगा।मानव जीवन में जितने भी आदर्श प्रदर्शित करने वाले सद्गुण हैं वे सभी नैतिकता से ही पोषित होते हैं।मनुष्य को उसके आदर्श ही अमरता दिलाते हैं। आदर्र्शो का स्थान भौतिकता से ऊपर है। मानव मूल्यों की तुलना कभी भौतिकताओं सेनहीं की जा सकतीयह नश्वर हैं। अभिमान सदैव आदर्र्शो और मानव मूल्यों को नष्ट कर देता है। अतइससे सदैव बचने की जरूरत है।

मानव  जन्म चंदन जैसी प्रक्रति लेकर संसार में आता है लेकिन धीरे धीरे बबूल जैसी प्रवृति का हो जाता हैहम समझ ही नहीं पाते हैं किकबकैसे और कहाँ हम स्वयं की मानवता को खो देते हैं ,हर मानव एक सुन्दर सी प्रकृति लेकर संसार में आता है बाल्य रूप की चमकतीहुई पवित्र आभा नेत्रों को ठंडक देती है 

मन को शांति देती है,

लेकिन जैसे जैसे बडे होते है तो दुनियाँ की कुछ ऐसी महिमा पाते हैं कि हैरान हर पल होते हमारे नयन कुटिलता के कंकर बन जाते हैं,आख़िर क्यों इस दुनियाँ की हरकतें ज़हरीली है 

मैं सार्वभौमिक और सभी को गले लगाने वाले सिद्धांतों पर आधारित धर्म में विश्वास करता हूँ  जिसे हमेशा मानव जाति द्वारा सत्य के रूपमें स्वीकार किया जाये,और आने वाले युगों में मानव जाति को मानवता की निष्ठा का संदेश देना जारी रखे,इसलिए विचाराधीन धर्म कोआदिकालीन सनातन धर्म कहा जाता हैविचाराधीन क्योंक्योंकि सनातन कोई धर्म नहीं है यह मानवता के मूल्यों और सिद्धांतों सेपरिपूर्ण सृष्टि के साथ से चली  रही एक सभ्यता है,सनातन सभी मानव निर्मित धर्मोंजातियों , सम्प्रदायों और पंथों की शत्रुता सेऊपर है। मानव निर्मित जो भी है वह मानवता का शत्रु हैमानवता को जब किसी वर्ग किसी समाज किसी श्रेणी या किसी पद्धति मेंविभाजित किया जाता है तब मानवता के मूल्यों का ह्रास हो जाता है और मनुष्य मानवता का शत्रु बन जाता है।मानवता से अनभिज्ञ जोअज्ञानता में डूबे हुए हैं ऐसे स्वयंभू संतों पादरियों मोलानाओं  द्वारा मानवीय मूल्यों का पतन किया जा रहा है सामान्य मानव जो कुछ भीमानता  हैंवह मानवता के ज्ञानियों द्वारा स्वीकार किए जाने के योग्य नहीं है। वही विश्वास ही वास्तव में सत्य है और स्वीकार करनेयोग्य हैजिसका पालन मानवता के मूल्यों को श्रेष्ठता प्रदान करके मानव कल्याण किया जाये , अर्थात जो वचनकर्म और विचार मेंसच्चे हैंसार्वजनिक भलाई को बढ़ावा देते हैं और निष्पक्ष और विद्वान हैं वहीं मानवता के मूल्यों को जनमानस सही रूप में पहुँचाने मेंसक्षम होते हैं लेकिन सच्ची मानवता में विश्वास रखने वाले लोगों द्वारा जो कुछ भी त्याग किया जाता हैउसे विश्वास के योग्य और झूठके रूप में माना जाना जाता है और झूँठे मक्कार मानवता के विरोधी भौतिकवादी स्वयं भू समाज सेवक समाज को पथभ्रमित करमानवता को कमजोर करने का काम कर रहे हैं।

ब्रह्मांड में भगवान और अन्य सभी वस्तुओं की मेरी अवधारणा वेदों और अन्य सच्चे शास्त्रों की शिक्षाओं पर आधारित हैऔर ब्रह्मा सेलेकर जामिनी तक सभी ऋषियों की मान्यताओं के अनुरूप है … मेरा एकमात्र उद्देश्य सच्चाई पर विश्वास करना है और दूसरों को भीऐसा करने में मदद करना है ,जो भी पक्षपाती होता है तो मैं संसार में प्रचलित किसी भी एक धर्म का समर्थन करता है लेकिन मैंने ऐसाकरने के विरूद्ध हूँ। इसके विपरीतकिसी भी देश या संसार के किसी भी भूभाग की संस्थाओं में जो आपत्तिजनक मानवता के विरूद्धऔर असत्य हैउसे स्वीकार नहीं करना चाहिएजो अच्छा है और जो सच्चे मानव धर्म के नियमों के अनुरूप हैउसे समस्त मानव जातिको स्वीकार करना चाहिए। मानवता के विपरीत आचरण मनुष्य के सर्वथा अयोग्य है।

धर्म मनुष्य कृत है धर्म ही मानवता का शत्रु है।बच्चा जब जन्म लेता है तब वह सिर्फ़ ईश्वर की एक अनमोल कृति होता है उसका ना कोईधर्म होता है ना उसकी कोई जाति होती है। धर्म जाति समाज इस सबका ज्ञान उसे इस संसार में आने के बाद अपने पूर्वजों से धरोहर केरूप में मिलता है जिसमें उलझकर वह ईश्वर के बनाये मानवता के धर्म से विमुख होकर मनुष्य कृत धर्म में उलझ जाता है। आज समस्तमानव जाति को ज़रूरत है तो मानवता की मानव धर्म की ना कि मनुष्यों द्वारा बनाई गयी किसी ऐसी संस्था की जो मनुष्य को मनुष्य सेअलग करे।

समस्त संसार में पाँच प्रकार के मानव होते हैं 

 ) असुरा – ये वह होते हैं जो प्राण इन्द्रियों पर आश्रित रहते हुए इन्हीं में उलझकर अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं  ऐसे मानवसंतान , परिवार ,समाज और ना ही मानवता का दायित्व निभाते हैं यह भोग विलासी प्रवृत्ति के होते हैं 

 ) पितर – ऐसे मानव पिता बनकर अपनी सन्तान के प्रति अपना कर्तव्य समझकर उन्हें योग्य बनाते हैं , किन्तु परिवार तक ही सीमितरहते हैंसमाज देश मानवता के प्रति इनका क्या दायित्व है यह उससे विमुख रहते हैं।

 ) मनुष्य – यह मनन करते हैं  परिवार की सीमा से निकलकर सारे समाज के हितअहित का विचार कर , सामाजिक गतिविधियों मेंसम्मिलित होते हैं देश और धर्म के प्रति जागरूक रहते हैं।

 ) देव – इस प्रकार के मानव सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित होने के साथ साथ उस के सुधार की चिन्ता करते हैं ,मानवता केमूल्यों का प्रतिपादन करते हैं।शासन मे मानवहितों के सुधार के लिये उसे नई दिशा देने के लिये उसमें सम्मिलित होते हैं देश और धर्म केउत्थान के लिये कार्य करते हैं 

 ) ऋषि – ये वो मनीषी होते हैं , जो समाज को नई दिशा देने के लिये क्रान्तदर्शी बनकर क्रान्ति का बीज बोते हैं  अथवा परमात्मदर्शनके लिये अपनी एकान्त साधना में संलग्न रहते हैं  ये लोग समाज को सुधारने के लिये समाज में आकर शासन में सम्मिलित नहीं होते इन्हें अपना कोई स्वार्थ होता है ये निःस्वार्थ मानवता की सेवा में तल्लीन रहते हैं  

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आदि दूत

सनातन ही अनन्त है, सनातन ही अनादि है। सनातन से पहले कुछ नहीं था, सनातन के बाद कुछ नहीं रहेगा। आप लोग सोचेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि इसके पीछे कुछ कारण हैं। सनातन सृष्टि के सृजन की मूल है।सनातन कोई धर्म नहीं है

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