अवतारवाद में घिरा समातन

वेद सनातन का मूल है।

यह कटु सत्य है कि हिन्दु अवतारवाद में उलझा हुआ है कि ईश्वर अवतार लेता है। जबकि ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता क्योंकि ईश्वर कोई जीव नहीं है जिसको बार बार जन्म लेना पड़े ईश्वर तो विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता ।ईश्वर वह प्राण वायु है जो प्रत्येक प्राणी में रहकर उसे चलायमान रखती है जिसे आत्मा भी कहते हैं ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है । अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और ईश्वर का स्वभाव अवतार लेना नहीं है क्योंकि ईश्वर कोई पदार्थ नहीं है जब कोई पदार्थ परिवर्तित होता है तो उसकी पहली अवस्था में बदलाव आ जाता है या तो वह पहले से बेहतर होगा या पहले से कम होगा।
अगर ईश्वर अवतार लेकर सम्पूर्ण होगा तो क्या इस सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर अवतार लेने से पहले सम्पूर्ण नहीं था ? यदि ईश्वर अवतार लेने के बाद सम्पूर्ण हुआ तो क्या वह ईश्वर संपूर्ण नहीं था जिसने इस सृष्टि की रचना की है यदि अवतार लेने के बाद ईश्वर पहले से थोड़ा भी कम हुआ है तो फिर तो अवतार लेने का कोई औचित्य ही नहीं रहा ।
मनुष्य में आदर्श स्थापित करने के लिए ही ईश्वर की वाणी वेदों के रूप में सृष्टि को दी गयी है।वेदों से बाहर ऐसी कोई शिक्षा नहीं है जो ईश्वर ने पहले से नहीं दो हो और ईश्वर को मनुष्यों में आदर्श स्थापित करने के लिये अवतार लेना पड़े, यदि कोई बाहरवीं की कक्षा का विद्यारथी , कक्षा आठ की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है । परंतु यदि कोई आठवीं कक्षा का विद्यार्थी बाहरवीं की कक्षा का प्रश्न हल करे तो बहुत बड़ी बात है ।
ठीक ऐसे ही वेदों की मर्यादाओं का पालन यदि कोई मनुष्य करे तो वही सबके लिए आदर्श होगा न कि ईश्वर के मनुष्य शरीर में आने पर होगा।
श्रीराम और श्रीकृष्ण ईश्वर का अवतार नहीं हैं ?ये केवल मनुष्य ही थे और अपने वैदिक कर्तव्यों का पालन करने के कारण ये महामानव बने लेकिन ईश्वर का अवतार नहीं थे ।लोगों का कहना कि श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है।

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत I
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम II

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम I
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे II

यदा= जब
यदा= जब
हि = वास्तव में
धर्मस्य = धर्म की
ग्लानि: = हानि
भवति = होती है
भारत = हे भारत
अभ्युत्थानम् = वृद्धि
अधर्मस्य = अधर्म की
तदा = तब तब
आत्मानं = अपने रूप को रचता हूं
सृजामि = लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ
अहम् = मैं

परित्राणाय= साधु पुरुषों का
साधूनां = उद्धार करने के लिए
विनाशाय = विनाश करने के लिए
च = और
दुष्कृताम् = पापकर्म करने वालों का
धर्मसंस्थापन अर्थाय = धर्मकी अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए
सम्भवामि = प्रकट हुआ करता हूं
युगे युगे = युग-युग में

इस पूरे श्लोक में कहीं भी अवतार शब्द कहीं नहीं आया?
यदि नहीं तो फिर अवतार होना कैसे सिद्ध हुआ ?
और दूसरी बात इस श्लोक में भारत लिखा हुआ है । यदि ये मानें कि भारत में वो अवतार लेते रहेंगे तो क्या बाकी दुनिया अरब, ईराक, ईरान, फ्रांस, टर्की, जर्मनी, अमरीका आदि में धर्म की हानी नहीं होगी ?? तो ये तो साफ श्लोक का अर्थ करने वाले की मूर्खता है, एक ओर भारत को पुन्य भूमि बोलता है और दूसरी ओर बोलता है कि यहाँ पाप बढ़ता है जिस कारण ईश्वर को बार बार अवतार लेना पड़ता है । इससे यह भारत पुण्य भूमि की बजाए पाप भूमि सिद्ध हुआ जहाँ बार बार ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है । पुण्य भूमि तो बाकी कि दुनिया को बोलना पड़ेगा जहाँ ईश्वर को अवतार नहीं लेना पड़ रहा ।
तीसरी बात ये है कि इसी श्लोक को आधार बना कर पाखंडी लोग अपने आप को ईश्वर या कृष्ण, विष्णु आदि का अवतार सिद्ध करते हुए दिखाई देते हैं । और लोगों से पैसे ऐंठते रहते हैं और मूर्ख लोग भेड़ चाल की भांती एक दूसरे के पीछे चलते रहते हैं ।
सत्युग में पाप नहीं होता, त्रेता में पाप बढ़ा ईश्वर ने कई रूपों में अवतार ले लिया द्वापर में पाप और बढ़ा तो ईश्वर ने फिर अवतार लिया और कलियुग आते आते पाप बढ़ गया लेकिन ईश्वर को अवतार लेने की आवश्यकता नहीं पडी।
सत्युग में मोहिनी, मत्सय, कुर्म, वराह अवतार हुए हैं ।
त्रेतायुग में वामन, राम, परशुराम ।
द्वापरयुग में कृष्ण, कपिल, वशिष्ट ।
सत्य तो यह है कि धीरे धीरे मनुष्य वेदों से अलग होता गया पाप बढ़ते गये जब सभी पापी हो जायेगे तो पाप को मिटाने की कोशिश कोई नहीं करेगा अपितु सब पुन्य को मिटाने में लग जायेगे यही आजकल हो रहा है।यदि ईश्वर अवतार लेते तो सबसे ज़्यादा अवतार कलयुग में होते ।भारत में पिछले १००० वर्ष तक विदेशियों का गुलाम रहा है जिसमें असंख्य अत्याचार हिन्दुऔं पर हुए हैं । जैसे मुसलमान शासक के काल में :-
गर्भवती स्त्रीयों के पेट फाड़ डाले जाते थे ।
मुसलमान सैनिक सुंदर लड़कियों को उठा ले जाते थे और गज़नी के बाज़ार में बेच देते थे ।
हिन्दुओं के मूँह पर थूक दिया जाता था ।
पाकिस्तान बनते समय हिन्दू सिक्खों के बच्चों को पका पका कर खाया गया, उनकी स्त्रीयों से सामूहिक बलात्कार हुए उनके स्तन काटे गए ।
तो ऐसे असंख्य अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर ने अवतार क्यों नहीं लिया।जब विदेशी आपकी बहु बेटियों, माताओं बहनों की और आपके देश, आपकी संस्कृति की अस्मत लूटते रहे तब ईश्वर के अवतार लेने की प्रतिक्षा करते रहे और ये आशा करते रहे कि कोई ईश्वर अवतार लेकर आपकी रक्षा के लिए आयेगा । ये आपकी नपुंसकता है और कुछ नहीं।अवतारवाद के मानने से मनुष्य पुरूषार्थ छोड़ भाग्यवादी हो जाता है । वो सोचता है कि मेरी रक्षा आकर कोई अवतार ही करेगा ।
समाज अनेकों ईश्वरों में बंट जाता है जिससे की राष्ट्र कमज़ोर हो जाता है ।
आज सनातन में अनेकों पाखंड चलने लगे हैं कई लोग भगवान के अवतार बनकर जनता को ठग रहे हैं और उनका शोषण कर रहे हैं । और लोगों को अवतार के भरोसे बैठ कर नपुंसक बना रहे हैं ।जिसकी शुरुआत बुद्ध से हुई है।शंकराचार्य ने भी धर्म को बस सदकर्म करके मोक्ष के रास्ते पर ले जाने तक ही सीमित कर दिया ।मनुष्य का सच्चा धर्म तो समाज में फैले वैमनस्य और अत्याचार को मिटाने है वह शस्त्र से मिटे या शास्त्र से।
निर्बल हुए धर्म समाज पर अनेकों विदेशी ईसाई और मुसलमान मत परिवर्तन का गंदा खेल खेलते जा रहे हैं जिसको बचाने के लिये आपको स्वयं खड़ा होना पड़ेगा।
ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता कोई मनुष्य ही वैदिक ज्ञान प्राप्त कर अपनी आत्मिक शक्ति को ऊर्जावान कर धर्म और समाज की रक्षा करता है।राम और कृष्ण इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।

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आदि दूत

सनातन ही अनन्त है, सनातन ही अनादि है। सनातन से पहले कुछ नहीं था, सनातन के बाद कुछ नहीं रहेगा। आप लोग सोचेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि इसके पीछे कुछ कारण हैं। सनातन सृष्टि के सृजन की मूल है।सनातन कोई धर्म नहीं है

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