संगत का असर

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्यापत नहीं , लिपटे रहत भुजंग ॥

आइए सर्वप्रथम इस दोहे के मूल भाव को समझ लें ,उसके बाद यह स्पष्ट करूंगा कि यह कथन सत्य है या नहीं है और मैं इससे सहमत हूँ अथवा नहीं।

रहीम दास जी के दोहे का शाब्दिक अर्थ तो यही है कि जो मनुष्य उत्तम प्रवृत्ति के होते हैं उन पर किसी बुरी संगत का असर नहीं पड़ता.. और वो उदाहरण देते हैं कि जैसे चंदन के वृक्ष पर सर्प लिपटे रहते हैं तो चंदन का वृक्ष विषैला नहीं हो जाता।

लेकिन रहीम दास अपने ही दूसरे दोहे में कहते हैं…कि 

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन

जैसी संगति बैठिए , तैसोई फल दीन ||

अर्थात्—स्वाति नक्षत्र मे गिरने वाली वर्षा की बूँद एक ही है लेकिन उसके तीन गुन है जो अलग प्रवृति का साथ पाने पर उसका स्वभाव बदल जाता है जैसे यदि केले के पत्ते पर गिरती है तो कपूर बन जाती है, सीप में गिरती है तो मोती बन जाती है और यदि सर्प के मुँह में गिरती है तो विष बन जाती है..

अब आप लोग ही बताईये कि रहीम की किस बात पर विश्वास किया जाये।

पहले दोहे से मैं बिल्कुल सहमत नहीं हूँ क्योंकि रहीम दास ने दोहा लिखते समय निर्जीव और सजीव को भुला दिया था या रहीम दास को निर्जीव और सजीव का ज्ञान नहीं था, 

वृक्ष प्रकृति में एक निर्जीव प्राणी हैं और सर्प प्रकृति में एक सजीव प्राणी है।निर्जीव और सजीव चाहे कितने भी आलिंगन में रहें वो एक दूसरे पर अपना कोई प्रभाव नहीं छोड़ सकते..

इसी तरह अब दूसरे दोहे की बात करते हैं रहीम दास ने स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली बूँद के स्वभाव का वर्णन किया गया है जिसमें बताया है कि स्वाति नक्षत्र की बूँद में भाँति भाँति के गुण हैं, जबकि ये भी सत्य नहीं है, स्वाति की बूँद का एक ही गुण है और वो है तरलता, अर्थात् वो घुलनशील है उसको जिसमें मिला दोगे उसका स्वभाव भी वैसा ही हो जायेगा, केले के पत्ते में कपूर की मात्रा होती है तो वो उसमें मिलकर कपूर बन जाती है,सीप का गुण है कठोरता तो वह उसमें मिलकर कठोर मोती बन जाती है, साँप की विशेषता उसका विषैलापन है तो उसके साथ मिलकर वह विष बन जाती है,, 

मेरे कहने का सीधा सा मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्वाति की बूँद की तरह इतने तरल मत बनो कि आपको कोई भी अपने जैसा बना ले, ना ही चंदन के वृक्ष की भाँति निर्जीव बनो कि आप पर किसी बात का प्रभाव ही ना पड़े, 

सजीव प्राणी हो तो सजीव बने रहो…

संस्कृत में इसीलिए कहा गया है कि..

संसर्गजा दोषगुणाः भवन्ति ।।”

अर्थात्..संगति से ही दोष या गुण होते हैं ।

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आदि दूत

सनातन ही अनन्त है, सनातन ही अनादि है। सनातन से पहले कुछ नहीं था, सनातन के बाद कुछ नहीं रहेगा। आप लोग सोचेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि इसके पीछे कुछ कारण हैं। सनातन सृष्टि के सृजन की मूल है।सनातन कोई धर्म नहीं है

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