क्या सच में पैसा सबसे बड़ा होता है?

सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते

पैसा सब कुछ तो नहीं लेकिन बहुत कुछ जरूर है.’ ऐसा कहने के पीछे लोगों की मंशा साफ़ समझ आती है कि वे पैसे को महत्वपूर्ण तो बताना चाहते हैं लेकिन खुद को पैसा परस्त बताने से भी बचना चाहते हैं. हम सब इस बात को बखूबी समझते हैं कि बहुत हद तक पैसा सब कुछ है और उस हद के आगे निकल जाने पर कुछ भी नहीं. वैसे अक्सर यह भी कहा जाता है कि पैसा अगर नहीं है तो सबसे बड़ा है और अगर है तो फिर वह उतना बड़ा नहीं रह जाता. हालांकि यह बात पैसे के साथ-साथ और भी कई चीजों, यहां तक कि इंसानों पर भी पूरी तरह से लागू होती है. यानी जो उपलब्ध है उसका महत्व तब तक पता नहीं चलता जब तक उसके बिना काम चलाने का मौका न आ जाए.सीधी बात ये है कि पैसे की कद्र करने के पीछे हमारी जरूरतें होती हैं. पैसे का बड़प्पन इस बात से बढ़ता है कि हमारी जरूरत कितनी बड़ी है. अगर हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है तो उस वक्त पैसा हमारे लिए सबसे बड़ी चीज हो सकता है. इसके बाद अगर हमारे पास पहनने के लिए कुछ नहीं है तो पैसा थोड़ा घटे कद के साथ हमारे सामने आकर खड़ा होता है. हमारी जरूरतों की प्राथमिकता जिस हिसाब से बदलती जाती है, पैसे का कद भी उस हिसाब से घटता जाता है.भारतीय दर्शन में हमेशा पैसे को मिट्टी या हाथ का मैल बताने की परंपरा रही है. इसके पीछे लोगों को मेहनतकश और आत्मनिर्भर बनाने का उद्देश्य रहा है. अगर कुछ दशक पहले के समय में जाकर देखें तो पता चलता है कि भारत में लोग खाने-पीने का इंतजाम खुद ही करने पर जोर देते थे. गांवों में खेती, सब्जी उगाना और गाय भैंस पालना लोगों का प्रमुख काम हुआ करता था. और तो और शहरों में भी किचन गार्डन नजर आ जाते थे. यह आत्मनिर्भरता की फितरत लोगों को पैसे के सम्मोहन से बचाने के लिए होती थी.पैसे के बारे में एक आम राय है कि हर चीज पैसे से नहीं खरीदी जा सकती. जो चीजें पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं उन्हें भी पैसा कहीं न कहीं प्रभावित करता ही है वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यताओं ने एक ही व्यक्ति द्वारा सारे काम कर लेने के बजाय हर व्यक्ति को एक विशेष काम सौंपने और उसमें विशेषज्ञता हासिल करने पर जोर दिया है. यह प्रवृत्ति पैसों पर लोगों की निर्भरता बढ़ा देती है. इस तंत्र का सिद्धांत यह होता है कि किसी एक काम को जानने वाला व्यक्ति उसके जरिये पैसे कमाएगा और उससे अपनी बाकी जरूरतें पूरी करेगा. यह सिद्धांत बहुत हद तक सही और सुविधाजनक दोनों है. विशेषज्ञता के बजाय आत्मनिर्भर होने के क्रम में व्यक्ति के पास एक साथ कई संसाधनों का मौजूद होना जरूरी है. जैसे अगर किसी के पास जमीन है तो ही वह खेती कर पाएगा और अपने भोजन का इंतजाम खुद कर पाएगा. बाकी जरूरतों के लिए भी उसके पास कम से कम प्रारंभिक संसाधन होने जरूरी हैं. ऐसा न होने की स्थिति में उसके सामने जीवन का संकट पैदा हो सकता है.

पैसा न सिर्फ वस्तुओं की कीमत आंकने का जरिया है बल्कि पैसे से अब इंसान की कीमत भी तय होती है. यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन कुछ अलग मायनों में सच है. इंसान की कीमत उसके काम से तय होती है. काम करने के लिए उसे पैसे मिलते हैं. कोई व्यक्ति जितना कमा रहा है और वक्त के साथ उसके कमाए पैसों में जितनी बढ़ोत्तरी हो रही है, यही उस आदमी की बढ़ती कीमत और बढ़ते महत्व का इकलौता मानक होती है.अगर पैसा बड़ा नहीं होता तो मिट्टी ढोने वाले मजदूर को सॉफ्टवेयर बनाने वाले इंजीनियर से ज्यादा महत्व मिलता क्योंकि वह ज्यादा शारीरिक श्रम कर रहा है. काम की प्रकृति और उस काम से कितने लोगों की जिंदगी में फर्क पड़ रहा है, यह बातें किसी व्यक्ति का महत्व निर्धारित करती हैं. काम की कीमत, पैसा और व्यक्ति की कीमत आपस में संबंधित हैं और एक दूसरे से प्रभावित हैं.

मान लिया जाए किसी व्यक्ति ने अपने काम से भारत जैसे देश में अपनी एक कीमत या महत्व बना लिया है और वह अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने लायक हो गया. यहां उसे शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा की भी जिम्मेदारी खुद ही उठानी पड़ती हैं. पश्चिम के किसी देश में निजी जरूरतों के अलावा बाकी की जवाबदारी सरकार की होती है, पूरी न भी हो तो आंशिक तौर पर सरकारें जनता की मदद करती हैं. हमारे यहां स्थिति थोड़ी अलग है. इन तीनों जरूरतों के लिए सरकार पर तो भरोसा किया ही नहीं जा सकता. अगर बेहतर गुणवत्ता में ये सुविधाएं चाहिए तो पैसा खर्च करना पड़ेगा. हर इंसान को जिंदगी में खाने, पहनने के बाद पढ़ने-लिखने, स्वस्थ और सुरक्षित रहने की जरूरत होती है. ऐसे में पैसा बड़ा नहीं है, यह कैसे कहा जा सकता है.पैसे की उंचाई इस बात से भी समझी जा सकती है कि लोग भगवान को भी खुश करने के लिए बेतहाशा पैसा खर्च करने को राजी रहते हैं पैसे के बारे में एक आम राय है कि हर चीज पैसे से नहीं खरीदी जा सकती. जो चीजें पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं उन्हें भी पैसा कहीं न कहीं प्रभावित करता ही है. जैसे उदाहरण के लिए मां का प्यार पैसे से नहीं खरीदा जा सकता लेकिन, मां भी अपने बेरोजगार बेटे को दुआओं के साथ लानत-मलानत देती रहती है. बेशक, ऐसा वह बच्चे के भले लिए करती है लेकिन यह भला भी पैसे कमाने से ही शुरू होता है.वही बेटा जो बेरोजगारी के दिनों में घर पर बैठने के लिए ताने सुन रहा था, नौकरी लगने के बाद वक्त न निकालने के लिए प्यार भरी फटकार सुनता है. इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पैसे या वक्त की इकाइयों में भी मां के प्यार का कोई मोल तय किया जा सकता है. सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि पैसा रिश्तों के अच्छा बने रहने में भी कहीं न कहीं बड़ी भूमिका निभाता है. फिर भी पैसा सबसे बड़ा इसलिए नहीं है कि सच्चे रिश्ते बनाने में पैसा किसी काम नहीं आता. इसलिए हम यह कह सकते हैं रिश्ते बिन पैसे के बन सकते हैं लेकिन उनके मेंटेनेंस के लिए तो थोड़े पैसों की भी जरूरत होती है.दूसरी चीज जो सबसे ज्यादा उभरकर सामने आती है कि पैसे से वक्त नहीं खरीदा जा सकता. सच है, लेकिन पूरी तरह नहीं. सच इस मायने में है कि आपके पास लाखों रुपए होते हुए भी किसी एक्सीडेंट या बीमारी की स्थिति में इलाज का वक्त चूकने पर लाखों रुपये लगाकर भी आप अपनी जिंदगी सुरक्षित नहीं कर सकते. हां लेकिन अगर सारी परिस्थितियां सामान्य हों और आपके पास ढेर सारा पैसा हो तो अपने लिए थोड़ा वक्त आसानी से निकाल सकते हैं. पैसा होने पर बहुत से निजी कामों के लिए आपके पास संसाधन होंगे, लोग होंगे. ये सब मिलकर आपका थोड़ा वक्त और ऊर्जा बचा लेते हैं.

कुछ आदर्श परिस्थितियों को छोड़ दिया जाए तो पैसा ही वह चीज है जो हमारे लिए बहुत कुछ करने की ताकत रखता है. यहां पैसे को भगवान नहीं कहा जा रहा है हालांकि पैसे की ही तरह भगवान भी हमारे सारे काम नहीं करते और हम उन्हें भी बड़ा तो मानते ही हैं. पैसे की ऊंचाई इस बात से भी समझी जा सकती है कि लोग भगवान को भी खुश करने के लिए बेतहाशा पैसा खर्च करने को राजी रहते हैं. इसलिए यह कहना ज्यादा सही है कि भगवान सबसे बड़ा होता है और पैसा बहुत बड़ा.

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आदि दूत

सनातन ही अनन्त है, सनातन ही अनादि है। सनातन से पहले कुछ नहीं था, सनातन के बाद कुछ नहीं रहेगा। आप लोग सोचेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, क्योंकि इसके पीछे कुछ कारण हैं। सनातन सृष्टि के सृजन की मूल है।सनातन कोई धर्म नहीं है

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